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साहित्य में जनतंत्र की परिकल्पना पर आधारित यह पुस्तक एक सैद्धांतिक आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो मैन्जर पाण्डेय द्वारा उनकी प्रसिद्ध कृति आलोचना में सहमति-असहमति में प्रतिपादित विचारों से प्रेरित है। मैन्जर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक में इस बात पर गहन चिंतन किया है कि एक लेखक किस प्रकार अपने साहित्यिक कृतियों में जनतंत्र की स्थापना करता है। उनकी दृष्टि में साहित्य मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह समाज के हर वर्ग को समान रूप से प्रतिनिधित्व प्रदान करने का माध्यम भी है।
इस पुस्तक में पाठक मैन्जर पाण्डेय के सैद्धांतिक दृष्टिकोण को विस्तार से समझने का अवसर पाएंगे। मैन्जर पाण्डेय ने यह स्पष्ट किया है कि साहित्य में जनतंत्र की स्थापना केवल विषय-वस्तु तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह भाषा, संरचना और शैली में भी झलकती है। उन्होंने उन बिंदुओं की पहचान की है जो यह समझने में मदद करते हैं कि लेखक अपने लेखन में...
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