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पुस्तक परिचय
मर्ज यानी 'रोग', कोई प्रेम रोगी है तो कोई दैहिक रोग ग्रसित है और किसी को मानसिक रोग है। रोग चाहे कोई भी हो दर्द देता है। इस दर्द का निदान आवश्यक है अन्यथा यह गंभीर रूप ले सकता है।
ऐसे ही मर्जी का मर्ज है जिसका निदान आवश्यक है। हम दूसरों की मर्जी पर चलते-चलते अपना अस्तित्व ही खो बैठते हैं और अपनी मर्जी को दबाते रहने के कारण कहीं न कहीं हमारे भीतर विध्वंस पैदा हो सकता है जिसके चलते नुकसान अवश्यंभावी है। इस रोग से बचने के लिए अपने अंतस की दबी हुई चिंगारी को हल्की हवा देने से अंतस प्रज्ज्वलित हो उठेगा तथा जीवन को सही दिशा भी देगा।
इस पुस्तक में सभी विद्वत कलमकारों ने मर्जी के मर्ज को बखूबी अपनी रचनाओं में विभिन्न भावों के साथ प्रस्तुत किया है जिन्हें पढ़कर हमारी सोई हुई मर्जी का जागृत होना निश्चित है। जीवन...
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