बेटी होने का दर्द
by प्रियंका गुप्ताअक्सर
अपने घर की छत पर
खडी हो कर
जब नीले चंदोबे से तने
आकाश की ओर देखती हूँ
तो-
सूरज की आँच से पिघलता आसमान
जहाँ मेरे भीतर
एक पिघलन सी भर देता है
वहीं ,
धरती की सख्त ज़मीन पर
फैली,
ढेरो उजास
मुझे उकसाती है कि
मैं भी
तीखी धूप से बेखबर, अलमस्त हो
आकाश में उडती
नन्ही सी चिडिया की तरह
चोंच खोल कर
अपने पूरे पंख फैला कर
आँख मिचौली का खेल खेलूँ
हवा के तेज झकोरों से झूमता
पेड
मुझे और भी उकसाता है
झूमने को
मैं तत्पर होती हूँ
तो माँ की फिक्रमन्द आँखें
मेरा रास्ता रोक लेती हैं
मैं जानती हूँ कि
उनकी फ़िक्रमन्द आँख़ों के
भीतर
एक सिहरन भरी है
जो चाहने के बावज़ूद
मुझ तक नहीं पहुँचती
आकाश और धरती के बीच
टँगा
उनका त्रिशंकु भय
नन्ही चिडिया नहीं जानती
जानना भी नहीं चाहती
कि अनन्त आकाश के
इस छोर से उस छोर तक
वह अकेली नहीं....
पंख फैला कर उडते
आदमख़ोर गिद्ध
हर पल शिकार की तलाश में हैं।
लगभग सात-आठ वर्ष की उम्र से लिखना शुरू करने वाली प्रियंका के अब तक कई पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएं, लघुकथाएं आदि छप चुके हैं। इनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से दो पुरस्कृत हैं। इसके अलावा इन्होंने कादम्बिनी साहित्य महोत्सव में श्री मोतीलाल वोहरा के हाथों कहानी-प्रतियोगिता में अनुशंसा पुरस्कार भी प्राप्त किया है।
Comments
बेटी होने का दर्द
" सूरज की आँच से पिघलता आसमान
जहाँ मेरे भीतर
एक पिघलन सी भर देता है "
बहुत ही उम्दा कल्पना ! बेटी होने का दर्द और उस दर्द के समकालीन संदर्भ को बखुबी अभिव्यक्त किया है ।
मंगलकामना !
डॉ संजय जाधव, परभणी महाराष्ट्र