रूममेट
by Anu Singh Choudhary"मेरा नाम असीमा है, असीमा कॉन्ट्रैक्टर। नाम से हिंदू लगती हूं, लेकिन हूं मुस्लिम। पांचों वक्त की नमाज़ पढ़ती हूं और रोज़े रखती हूं। क्या किसी को मेरे यहां रहने से कोई परेशानी है?"
असीमा ने ऐसे अपना परिचय दिया था पहली बार। मुंबई के अंधेरी के चार बंगला इलाके की कोठी के एक कमरे में चार लड़कियों को पेइंग गेस्ट बनाकर रखने की जगह थी। तीन तो पहले से थे। कमरे में वो चौथी रूममेट बनने के लिए घुसी थी।
दो मिनट तक असीमा के सवाल पर सब चुप्पी साधे बैठे रहे, अपने-अपने बिस्तरों पर, अपनी-अपनी दुनिया में। एकबारगी नफ़ीज़ा ने चुप्पी तोड़ी।
"मैं नफ़ीज़ा डीसूज़ा हूं। डीसूज़ा हूं तो ज़ाहिर है, क्रिश्चियन हूं। खिड़की के बगल वाली बिस्तर पर जो मैडम बैठी हैं, उनका नाम है लिली पांडे। अब लिली जी पांडे कैसे हैं, ये तो उन्हीं से पूछिए। लिली के बगल वाले बिस्तर पर हैं विशाखा पटेल। नैरोबी से मुंबई आई हैं भरतनाट्यम सीखने। इनकी धर्म, जाति का हमें पता नहीं। कभी ये फोन पर गुजराती बोलते मिलती हैं, कभी मलयालम। बॉयफ्रेंड जर्मन है। हममें से किसी को तो एक-दूसरे से परेशानी नहीं। ना नाम से, ना टाइटिल से और ना जाति-धर्म से। आप अपनी बात बताएं असीमा जी।"
नफ़ीज़ा के इस तल्ख़ जवाब से असीमा थोड़ी देर शांति से खड़ी रही। फिर अपना सूटकेस लुढ़काती हुई कमरे के अंदर आ गई और विशाखा की ओर देखकर अंग्रेज़ी में पूछा, "विच वन वुड बी माई बेड?"
विशाखा ने इशारे से दरवाज़े के ठीक बगल वाले बिस्तर की ओर इशारा कर दिया। असीमा चुपचाप बिस्तर पर अपना सामान खोल-खोलकर रखती गई और बगलवाली अलमारी में घुसाती रही। इस बीच विशाखा फोन से चिपकी रही, लिली ने अखबार में सुडोकू खेलना जारी रखा और नफ़ीज़ा ने अपने कानों में वापस सीडी प्लेयर के इयरप्लग्स लगा लिए। इतवार का दिन था। किसी को कोई जल्दी नहीं थी।
जल्दी का आलम तो अगले दिन सुबह सात बजे देखने को मिला। विशाखा को क्लास के लिए देर हो रही थी, लिली को शूट पर जाना था और नफ़ीज़ा को दफ्त र। दस मिनट पहले भी कोई बिस्तर छोड़ने को तैयार नहीं होता, लेकिन बाथरूम के लिए दस मिनट की बहस सबको मंज़ूर थी। बस असीमा ही अपने कोने में बैठी थी, आज की मशक्कत के लिए पूरी तरह तैयार, अख़बार पकड़े कल की बासी ख़बरें पढ़ते हुए!
"कहां है ऑफिस तुम्हारा? कहीं काम करती हो या काम की तलाश में निकलोगी आज से?" पहला सवाल नफ़ीज़ा ने ही दागा।
"नहीं, नौकरी करती हूं। पेशे से आर्किटेक्ट हूं। वर्ली में है ऑफिस। बस निकलूंगी थोड़ी देर में।"
"आर्किटेक्ट हो। नाम भी असीमा कॉन्ट्रैक्टर है। कहीं हफ़ीज़ कॉन्ट्रैक्टर तुम्हारे रिश्तेदार तो नहीं लगते?" ये सवाल लिली की ओर से आया था।
कल से पहली बार असीमा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आई थी।
"नहीं, नहीं। कोई रिश्तेदार नहीं लगते। लेकिन काश ऐसा होता। मुझे यहां तक पहुंचने के लिए इतनी मारा-मारी तो नहीं करनी पड़ती।"
असीमा का इतना कहना था कि लगा जैसे कमरे का माहौल अचानक हल्का हो गया हो। लगा जैसे चारों का रूममेट बनकर रहना अब मुमकिन हो सकेगा। अपना ये कमज़ोर-सा छोर सबके सामने रखकर असीमा ने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था। वरना तो अठारह घंटों में ही नफ़ीज़ा इस कदर असीमा से नाराज़ हुई कि मन-ही-मन उसे पीजी से निकाल बाहर करने की कई योजनाएं भी तैयार हो चुकीं थी।
"कहां तो हम बांद्रा-छाप ड्रेस पहनकर खुश होनेवाली लड़कियां, और कहां ये, जो फैब इंडिया का कुर्ता डाले हाथ में लैपटॉप लिए पोलो की ट्रॉली खींचती अंदर चली आई थीं। और परफ्यूम भी शानदार था इनका - कूल वॉटर्स। अब जब चौबीस सौ का परफ्यूम ही लगाती हैं मैडम तो तीन हज़ार देकर इस पीजी में रहने का क्या मतलब?" जितनी देर असीमा अलमारी में अपने कपड़े डालती गई, उतनी देर नफ़ीज़ा का ध्यान कपड़ों के ब्रांड की पहचान करने में लगा रहा। ये टॉमी, ये मैंगो, गेस और ये अंदर गईं फैब इंडिया की साड़ियां। ये सोती भी ऐडिडास के ट्रैक्स में हैं। "साउथ बॉम्बे" टाईप के लोग नफ़ीज़ा को वैसे भी पसंद नहीं, असीमा को देखकर उसके तन-मन में आग ही लग रही थी।
"चलो, चलो नाश्ता कर लो सब लोग। दूध-कॉर्नफ्लेक्स है आज। असीमा, तुम खा सकोगी ना ये?" मकानमालकिन कविता दीदी कमरे में सबको बुलाने आई।
"थैंक्यू दीदी, लेकिन मेरे रोज़े चल रहे हैं। अब मैं रात को ही खाना खाऊंगी।"
"हां, हां तुमने बताया था कल। भई असीमा तो रोज़े रखेगी और नमाज़ पढ़ेगी। तुममें से किसी को कोई परेशानी तो नहीं है ना?"
"दीदी, जब रोज़-रोज़ सुबह आपके बेसुरे 'ऊं जय जगदीश हरे' से परेशानी नहीं होती तो किसी के नमाज़ पढ़ने से क्या परेशानी होगी?" जवाब विशाखा ने दिया था। "अब चलो यार, वरना आज देर हुई तो गुरुजी मुझे बैरंग लिफाफे की तरह क्लास से लौटा देंगे।"
सब एक-एक कर घर से निकलते गए। विशाखा मलाड़ की ओर भरतनाट्यम की कुछ और मुद्राएं सीखने, लिली आरे कॉलोनी की ओर क्रिएटिव आर्ट्स टेलीफिल्म्स के डेली सोप का प्रोडक्शन संभालने और नफ़ीज़ा जेके ट्रेडिंग के रिसेप्शन पर बैठने।
नफ़ीज़ा को असीमा ने ही पीछे से आवाज़ दी थी। "बस स्टॉप तक जा रही हो नफ़ीज़ा? मैं भी चलती हूं।"
दोनों चुपचाप चलने लगे थे। नफ़ीज़ा कनखियों से असीमा का बैग देख रही थी - हाईडिज़ाईन का था।
"कहां से हो असीमा?"
"पूना से। अब्बू-अम्मी वहीं रहते हैं। लेकिन मैंने यहीं जेजे स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर से पढ़ाई की है। इसलिए मुंबई में नई नहीं हूं।"
"आर्किटेक्ट हो, अच्छा कमाती ही होगी। मुंबई में रही हो, जानती होगी कि चार बंग्ला से वर्ली की दूरी कितनी है। फिर महालक्ष्मी या खार जैसी जगहों में पीजी क्यों नहीं खोजा?"
"ये जगह मुझे अच्छी लगी नफ़ीज़ा। आख़िर मुंबई में ऐसे रो हाउसेज़ और कहां मिलेंगे, जहां बीचोंबीच एक पार्क हो, कॉलोनी में अंदर आते ही मुंबई का कोलाहल दूर चला जाए। और सच कहूं तो मैंने कमरे की खिड़की से दिखनेवाले गुलमोहर के लालच में यहां रहना तय किया। वैसे लिली खुशकिस्मत है। बिस्तर पर बैठे-बैठे ही हाथ बाहर निकालकर गुलमोहर को छू सकेगी। तुम कब से रह रही हो यहां?"
"पिछले डेढ़ साल से। मैं गुलमोहर या पार्क के चक्कर में यहां नहीं हूं। कविता दीदी के पति मेरे दफ्तर में ब्रोकर हैं, इसलिए मुझे फोर्टी पर्सेंट डिसकाउंट पर ये जगह मिल गई। लो आ गई तुम्हारी बस। २२० ही लोगी ना वर्ली तक?"
"नहीं, एएस फोर। तुमको कहां तक जाना है?"
"जहन्नुम तक।" नफ़ीज़ा मन-ही-मन बुदबुदाई। "मैडम यहां से भी एयरकंडीशन्ड बस में चढकर जाएंगी।" लेकिन जवाब में इतना ही कहा, "मैं अंधेरी स्टेशन तक जाऊंगी। ऑटो लूंगी। चलो, शाम को मिलते हैं।"
शाम को कमरे से कबाब की खुशबू आ रही थी, दीदी के किचन में पकौड़ियां तली जा रही थीं और असीमा अपने बिस्तर पर बैठी पुराने अख़बार पर प्लेट रखकर फल काट रही थी।
"इफ्तारी का वक्त हो गया है नफीज़ा। ये कबाब लाई हूं। खाओगी ना मेरे साथ? दीदी कितनी अच्छी हैं। पकौड़ियां तल रही हैं मेरे लिए।"
"दीदी अच्छी हैं क्योंकि तुम नयी मुर्गी हो। इन पकौड़ियों में डाले गए बेसन, प्याज और नमक की कीमत धीरे-धीरे वसूलेंगी तुमसे।" नफ़ीज़ा ने धीरे-से कहा।
"ऐसा क्या? अच्छा हुआ तुमने आगाह कर दिया। लिली और विशाखा कब तक आते हैं?"
"लिली को देर होती है। कई बार बारह भी बज जाते हैं। स्टार पर प्राइमटाईम का सीरियल देखा होगा - क्या कहें क्या ना कहें। लिली उसी का प्रोडक्शन संभालती है। कभी फ़ुर्सत में हो तो टीवी स्टारों की गॉसिप सुनना उससे। ऐसे-ऐसे किस्से बताती है कि सीरियल की कहानी का उतार-चढ़ाव उसके आगे सपाट पड़ जाए। और ये विशाखा है ना, इसका एक्स-बॉयफ्रेंड मॉडल था। नेस्ले का एड देखा है ना? वो हेज़ल आईज़ वाला हंक? विशाखा का बॉयफेंड था। रोज़ अपनी एन्टाईसर लेकर नीचे खड़ा हो जाता था। पता नहीं क्या हुआ, ब्रेक-अप हो गया उनका। अब कोई जर्मन है। पर मैंने देखा नहीं उसे।"
"मैंने सिर्फ उनके वापस आने का वक्त पूछा था नफ़ीज़ा।" असीमा नीचे देखते हुए सेब काट-काटकर प्लेट में रखती रही। उसके बाएं हाथ की उंगली में एक हीरा चमक रहा था।
"एन्गेज्ड हो?" नफीज़ा से रहा नहीं गया और सवाल ज़ुबान से फिसल ही निकला।
"नहीं। शादी-शुदा। शौहर दुबई में हैं।"
"हाउ इंटरेस्टिंग! इसलिए डिज़ाईनर कपड़े पहनती हो। मैं तो पहले ही सोच रही थी कि आखिर ये आर्किटेक्ट कमाती कितना है कि पूरा वॉर्डरोब इतने महंगे़ कपड़ों से अंटा पड़ा है। हस्बैंड गिफ्ट करते होंगे, नहीं?"
असीमा ने नज़रें उठाकर नफ़ीज़ा को घूर भर लिया, कुछ कहा् नहीं। लेकिन असीमा ने ये समझ लिया कि किसी के सामने ज़रूरत से ज़्यादा खुलना उसे अपनी ज़िन्दगी में ताक-झांक के मौके देने के बराबर होगा। ये ताक-झांक असीमा को मंज़ूर ना थी।
लिली से बातचीत का पूरे हफ़्ते कोई मौका ना मिला, ना विशाखा ने असीमा से ज़्यादा सवाल पूछे। असीमा की चुप्पी और रवैये को देखकर नफ़ीज़ा ने भी खुद से अपने काम से काम रखने जैसा कुछ वायदा किया। नफ़ीज़ा की ये कसम अगले ही इतवार को टूट गई। सुबह-सुबह लिली ने कमरे में मौजूद तीनों रूममेट से पूछा, "फेम एडलैब्स में 'द डार्क नाइट' लगी है। कई ऑस्कर नॉमिनेशन्स मिलें हैं। सुबह के शो की टिकट तीस रुपए में मिल भी जाएगी। कोई चलेगा मेरे साथ?"
"आई एम गेम।" पहला जवाब विशाखा की ओर से आया।
"मैं चल सकती हूं क्या?" असीमा के मुंह से ना चाहते हुए भी दिल की बात निकल ही गई। इस फिल्म की समीक्षाएं असीमा पिछले कई दिनों से अख़बारों में पढ़ रही थी। इसलिए रूममेट के साथ दोस्ती को लेकर तमाम आशंकाओं के बावजूद असीमा बाकी तीन लड़कियों के साथ फेम एडलैब्स जा पहुंची।
फिल्म के बाद लंबी बहस के साथ कॉफी और फिर लंच का सिलसिला चलता रहा। असीमा लिली की टिप्पणियां सुनकर बहुत प्रभावित थी। फिल्म के कथानक से लेकर पात्रों की अभिनय-शैली, स्क्रिप्ट से लेकर कैमरा एंगल तक पर वो कुछ-ना-कुछ बोलती रही।
"मुझे तुम्हारी प्रतिभा का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।"
"अभी तुमने मुझे पहचाना कहां है असीमा। अभी तो हमारी दोस्ती की शुरूआत भर है। जुहू बीच चलोगी शाम को? अपनी प्रतिभा के और नमूने दिखाऊंगी तुम्हें।"
असीमा ना कहते-कहते हां बोल बैठी। जाने क्या था इस लड़की में, जो उसे अनायास उसके करीब ले जा रहा था। लेकिन नफ़ीज़ा को ये दोस्ती रास नहीं आ रही थी। नफ़ीज़ा ने विशाखा को अपने साथ लोखंडवाला की ओर विंडो शॉपिंग के लिए खींच लिया। " इन दो इन्टेलेक्चुअल्स के साथ हम क्या करेंगे विशाखा," नफ़ीज़ा का तर्क था।
दिन भर चार बंगला के आस-पास भटकने के बाद दोनों शाम को पैदल ही जुहू चौपाटी की ओर चल दिए। पूरे रास्ते लिली का बोलना जारी रहा - पटना का घर, दिल्ली का हॉस्टल, आरा का गांव, मुंबई के सेट - लिली असीमा को अपनी रंग-बिरंगी दुनिया की सैर कराती रही।
रात के नौ बजे भी दोनों को घर लौटने की इच्छा नहीं थी। असीमा को लिली की कहानियों में वो रस मिल रहा था जो बचपन में परीकथाओं को सुनने में मिलता था। कैसे-कैसे पात्र थे लिली के जीवन में! प्रोडक्शन मैनेजर सतीश भाई जिन्होंने तेलुगू फिल्मों में किस्मत आजमाई लेकिन असफल रहे। मुंबई में अब आर्टिस्टों, तकनीशियनों के लिए नाश्ते-खाने का इंतज़ाम करने में ही उन्हें जीवन का अनुपम आनंद प्राप्त होता है। सात भाषाएं बोलते हैं और भूल जाते हैं कि किससे कौन-सी भाषा में बात करनी हैं। जिस सीरियल का काम लिली संभाल रही है, उसकी कहानी सेट पर मौजूद कलाकारों को देखकर लिखा जाता है। कलाकार अनुपस्थित तो एपिसोड से किरदार भी अनुपस्थित! लिली की मां की मीठी आवाज़ उसे विरासत में मिली है, और वो झूमर भी जो मां रोटियां बेलते हुए भी गाया करती है। बिना किसी भूमिका के रेत पर पसरे-पसरे लिली ने असीमा को वो झूमर सुनाया था।
"छोटे-मोटे पातर पियवा हँसि के ना बोले
मोर ननदिया रे से हू पियवा कहीं चलि जाय
गंगा रे जमुनवा के चिकनी डगरिया
मोर ननदिया रे पैयाँ धरत बिछलाय"
"मेरी ज़िन्दगी में इतना रस नहीं लिली," अपने बारे में कुछ बताने के लिए कहने पर असीमा ने धीरे-से कहा था। "मॉल बनवाती हूं, इमारतें बनवाती हूं और कॉन्क्रीट के बारे में सोचते-सोचते ख़्याल भी पत्थर-से हो गए हैं।"
"ये पत्थर मेरे साथ रहकर पिघल जाएगा असीमा," लिली ने हंसते हुए कहा था।
"आज वीकेंड खत्म हो गया है। कल देखेंगे किसे कहां पत्थर तोड़ने जाना होता है और किसमें पत्थरों को पिघलाने की ताकत बची होती है। अब चलोगी कि रात यही समंदर किनारे बिताने का इरादा है।"
"काश ऐसा मुमकिन होता। वैसे झूमर की कीमत वसूलनी है मुझे। याद नहीं जोकर ने क्या कहा था फिल्म में। इफ यू आर गुड एट समथिंग नेवर डू इट फॉर फ्री। गाना अच्छा लगा तो मेरे मीठे गले को तर करने के लिए नैचुरल्स से सीताफल आइसक्रीम खिलाओ मुझे।"
फिर तो पूरे हफ़्ते असीमा रविवार का इंतज़ार करती रही थी। लिली का काम ऐसा था कि वो देर रात शूट से वापस लौटती, सबके सो जाने के बाद। सुबह-सुबह उसे उठाना असीमा को उचित ना लगता। लिली से उसका मोबाइल नंबर भी नहीं लिया था असीमा ने। अब नफ़ीज़ा या विशाखा से मांगती तो नफ़ीज़ा आंखें घुमा-घुमाकर कहती, "बड़ा याराना लगता है दोनों में।" मकानमालकिन से नंबर के लिए पूछा तो उन्होंने सीधे पूछ दिया, "कोई काम है? मुझे बता दो। मैं मैसेज दे दूंगी। वैसे तुम इन तीनों से दूर ही रहो तो अच्छा है असीमा। तुम पढ़ी-लिखी हो, शरीफ हो, इन तीनों से उम्र में भी बड़ी हो। इनसे क्या मतलब तुम्हें?"
असीमा समझ गई कि कविता दीदी नहीं चाहती कि चारों में दोस्ती हो। दोस्ती होने का मतलब था उनके विरुद्ध एकजुट होना, उनके खि़लाफ़ साज़िश। और अगर चारों ने उनकी अधपकी दाल और प्रेशर कुकर में चढ़नेवाले बासी चावल के साथ पकनेवाले नए चावल के विरोध में झंडा उठा लिया तो उनका क्या होगा?
"शुक्र है कि मेरे रोज़े चल रहे हैं," कविता दीदी के पकाए खाने की याद आते ही असीमा को उबकाई आ गई।
एक रोज़ फज्र की नमाज़ के लिए असीमा उठी तो लिली उसे बाहर ड्राइंग रूम में बैठी मिली।
"नमाज़ के लिए उठी हो? सेहरी करोगी ना? दूध पियोगी? ब्रेड है, वो भी लाती हूं।"
"तुम बैठो लिली। मैं सब कर लूंगी। कब लौटी?"
"थोड़ी देर पहले। रसेल क्रो की फिल्म देखी है "अ ब्यूटीफुल माइंड?" फिल्म के मुख्य किरदार जॉन नैश की एक बात याद आ रही है। फाइंड ए ट्रूली ओरिजिनल आइडिया। इट इज़ द ओनली वे आई विल एवर मैटर। एक ओरिजिनल आइडिया खोजना होगा। तभी कुछ हो सकेगा मेरा।"
"बिल्कुल। लेकिन सुबह के चार बजे? कल शनिवार है और परसों इतवार। तुम्हारा शो ऑन-एयर नहीं होगा। कल से लेकर परसों तक सोचना इस बारे में। अभी सो जाओ। और हां, अपना नंबर देती जाना।"
दिन में असीमा ने लिली को एसएमएस किया था कि शनिवार को उसे डिनर के लिए भिंडी बाज़ार ले जाएगी। इफ़्तार के वक़्त भिंडी बाज़ार की रौनक देखने लायक होती है, और कई दिनों से असीमा शालिमार रेस्टूरेंट की तंदूरी खाना चाहती थी। लिली ने वापस एसएमएस कर डिनर के लिए हां कह दिया था, लेकिन नैचुरल्स की सीताफल आइसक्रीम के साथ!
लिली असीमा के दफ्तर आ गई थी, और दोनों वहां से मोहम्मद अली रोड के लिए टैक्सी में बैठ गए। "मैं पहली बार किसी मुसलमान के साथ इफ्तार के वक्त खाना खाऊंगी असीमा। मेरी लंबी-चौड़ी उम्मीदों पर पानी मत फेरना," लिली ने कहा। थोड़ी देर में दोनों मोहम्मद अली रोड पर थे। सड़क के इस किनारे से भिंडी बाज़ार तक लगी रंग-बिरंगी दुकानें, खाने-पीने के स्टॉल, मिठाईयों के ढेर - मुंबई की इस गली का नाम किसी ने खाऊ गली यही देखकर रख दिया होगा।
असीमा लिली को सीधे शालिमार ले गई। तंदूरी रान मसाला और शालिमार चिकन चिली, दोनों के लिए असीमा ने ही ऑर्डर किया था। लिली थोड़ी देर तक अंदर से आती गंध से परेशानी महसूस करती रही, लेकिन खाने का लोभ उसे रोके हुए था। "जानती हो असीमा, मेरे पिता के एक मुसलमान सहयोगी थे, ताहिर अंकल। घर से जब वे पापा से मिलकर जाते थे, दादी उस कुर्सी का कवर धुलवाया करती थीं, डिटॉल से। उनके लिए अलग कप, अलग बर्तन थे। मां को पता लगेगा कि मैं यहां तुम्हारे साथ हलाल मीट खा रही हूं तो मुझे हलाल कर देंगी।"
"अच्छा? इक्कीसवीं सदी में भी? ख़ैर, ये बताओ कि वो ओरिजिनल आइडिया क्या है जो तुम्हें परेशान किए जा रहा है?"
"वही आइडिया जिसके लिए मैं मुंबई आई। जानती हो असीमा, मैं बचपन से पूरी सिनेमची थी। 1989 में मेरे यहां वीसीपी आया तो मैं ग्यारह साल की थी। दूरदर्शन पर आनेवाली हर फिल्म याद रहती, मैं देखती भी। वीसीपी पर भी सभी नई-पुरानी फिल्में देखती। बच्चे बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर बनना चाहते हैं, मैं फिल्मों की दुनिया में शामिल होना चाहती थी। मुझे याद है कि मैं ननिहाल में थी, गर्मी की छुट्टियां के लिए। मामाजी ट्रैक्टर की बैटरी चार्ज कराकर लाए थे कि इतवार को सब मिलकर 'रामायण' देखेंगे। मैंने हड़ताल कर दी कि नहीं, शाम को आनेवाली फिल्म देखेंगे। मैं जीत गई। हमने प्रकाश झा की 'हिप हिप हुर्रे' देखी थी उस शाम। तभी मैंने सोच लिया था कि मैं भी ऐसी ही फिल्में बनाऊंगी जिनमें छोटे शहरों के ख्वाब हों, उनकी खुशियां, उनकी इनसिक्युरिटी, उनकी संवेदानाएं हों।"
"तो फिर? क्या रोके हुए है तुम्हें?"
"इतना आसान नहीं है। दिल्ली तक मेरे जाने में किसी को परेशानी ना हुई। पटना से दिल्ली रातभर की ही तो बात है। फिर आधे बिहारी तो दिल्ली में आ बसते हैं। लेकिन मुंबई आने के लिए ज़िन्दगी दांव पर लगानी पड़ी।"
"मैं समझी नहीं लिली।"
"पापा ने कहा मैं शादी कर लूं तभी मुंबई आ सकती हूं। किसी तरह शादी तो टाल दी मैंने, सगाई नहीं टाल पाई। मंगेतर यहीं पवई के पास लार्सन एंड टूब्रो में इंजीनियर है।"
"तो इसमें परेशानी क्या है। तुम मुंबई में हो, नौकरी कर ही रही हो। आइडिया तो वैसे भी दिमाग से सोचना है ना। वो तुम कहीं भी सोच सकती हो।"
"परेशानी ये नहीं कि आइडिया कहां से आए, परेशानी है कि आइडिया एक्ज़िक्युट कैसे हो।"
"वो भी हो जाएगा। वैसे अपने मंगेतर से मिलवाओगी नहीं मुझे।"
"क्यों नहीं। लंदन में है किसी प्रोजेक्ट के लिए। सच पूछो तो तुम्हारे साथ मैं बैठ भी इसलिए सकी हूं क्योंकि वो है नहीं यहां।"
"ठीक है भई। ही डिज़र्व्स योर टाईम। वीकेंड पर तो मिलते होगे तुम दोनों।"
"हां। ख़ैर, मीठे में क्या खिलाओगी?"
"तुम्हीं ने तो नैचुरल्स की आइसक्रीम के लिए कहा था। वो ही ना।"
"नहीं। इरादा बदल गया है यहां आकर। कुल्फी फलूदा चाहिए। और मरीन ड्राईव चलोगी क्या? तुम्हें अपना ओरिजिनल आइडिया सुनाऊंगी।"
"बिल्कुल। ओरिजिनल आइडिया सुनने के लिए तो कुछ भी करूंगी।"
मरीन ड्राईव में समंदर के किनारे बैठे-बैठे लिली ने पहली बार अपनी वो कहानी सुनाई थी जिसपर उसे फिल्म बनानी थी। असीमा ने कहा था उससे कि वो फाइनैंन्सर होती तो बिना दुबारा सोचे उसकी फिल्म में पैसे लगा देती।
ईद के लिए असीमा घर नहीं गई थी। कहा था कि एक ज़रूरी मीटिंग के लिए ईद की अगली सुबह ही बैंगलोर जाना था, इसलिए। लेकिन उस दिन लिली को लेकर वो हाजी अली गई थी। पीर की मज़ार पर चादर चढ़ाने के बाद सज्दे के लिए झुकी असीमा क्यों दुपट्टे में मुंह छुपाए रोती रही थी, लिली चाहकर भी नहीं पूछ पाई थी। दरगाह से निकलने के बाद लिली ने सिद्धिविनायक जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। मंदिर में असीमा भी घुसी थी लिली के साथ।
"सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं यहां के गणपति। आज ईद का दिन भी है। पीर से जो मांगा, सिद्धिविनायक से भी मांग लो। रिइन्फोर्समेंट हो जाएगी।" लिली ने हंसते हुए कहा था।
"जो दुआ मांगी है वो बख़्शी नहीं जाएगी। लेकिन फिर भी मांगने की ज़िद पर मैं कायम तो हूं लिली।"
"मैं नहीं जानती कि तुम्हें कौन-सा ख़्याल परेशान कर रहा है, लेकिन कभी इस बारे में बात करना चाहो तो मैं हूं असीमा।"
"जानती हूं, लेकिन अभी नहीं। इस ख़्याल का बोझ बहुत भारी है। बांटूंगी तो ये बोझ बढ़ेगा ही।"
दोनों दोपहर तक घर आ गए। कविता दीदी ने स्पेशल लंच बनाया था। खाने के बाद लिली ने मोटी-सी डायरी अपनी अलमारी से निकाली।
"आज ये खज़ाना बांटूंगी तुम सबसे। चार बंगला की कोठी नंबर 12 के इस कमरे में दस मिनट में मुशायरा शुरू होनेवाला है। सभी लोग अपनी-अपनी जगह ले लें।"
थोड़ी देर में चारों रूममेट और कविता दीदी नीचे फर्श पर ही पालथी मारकर बैठ गए। लिली ने ग़ालिब से शुरूआत की।
"आज हम अपनी परेशानी-ए-खातिर उनसे
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं।"
असीमा ने फिर से शेर दुहराया -
"आज हम अपनी परीशानि-ए-ख़ातिर
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं।"
"हां तो? मैं कुछ और कह रही थी क्या असीमा?"
"नहीं। सिर्फ़ नुक़्तों का फ़र्क़ था। ख़ से नुक़्ता क्यों नदारद है लिली?"
"भई बिहार में तो ऐसे ही उर्दू बोलते हैं। सुनना चाहो तो सुनो।"
"मेरे कानों को चुभेंगे। ख़ैर, एक मेरी ओर से सुनो, मजाज़ है।
"मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़्मे गा नहीं सकता
सुकूं लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता।
कोई नग़्मे तो क्या, अब मुझसे मेरा साज़ भी ले ले
जो गाना चाहता हूं आह वो मैं गा नहीं सकता।"
मुशायरे से शुरू हुआ सिलसिला फिल्मी गानों की ओर बढ़ा, फिर विशाखा ने मीराबाई का एक भजन सुनाया और नफ़ीज़ा ने सिलिन डिओन का "आई एम योर लेडी" सुनाया। कविता दीदी भी कुछ चुटकुले, कुछ किस्से सुनाकर हंसती-हंसाती रहीं। देर शाम चारों लड़कियां सामने वाली पार्क में जाकर बैठ गए।
"व्हाट अ डे। बहुत मज़ा आया आज। अच्छा हुआ तुम घर नहीं गई असीमा," विशाखा ने कहा।
"तुम्हारे हस्बैंड नहीं आए ईद पर असीमा?" नफ़ीज़ा का ये सवाल असीमा और लिली, दोनों को तीर की तरह लगा।
"छुट्टी नहीं मिली," असीमा ने नज़रें झुकाए हुए ही जवाब दिया। उसकी उंगलियां लॉन की घास से उलझती रहीं।
लिली ने असीमा की ओर गहरी नज़रों से देखा भर, कुछ कहा नहीं।
उस रात दोनों को नींद नहीं आई, लेकिन कमरे में मौजूद दो और रूममेट के सामने कोई बात नहीं हो सकती थी।
अगली सुबह असीमा बैंगलोर के लिए निकल चुकी थी। लिली के मोबाइल इन्बॉक्स में एक मेसैज था - "बैंगलोर नहीं, बांद्रा जा रही हूं, फैमिली कोर्ट। आज क़ानूनन तलाक़ मिल जाएगा। तुम्हें क्या बताती। आज शाम घर जाऊंगी, अम्मी-अब्बू को बताने। दो दिन बाद लौटूंगी तो बात करूंगी।"
लिली भारी मन से तैयार होती रही। घर से निकली तो चांदिवल्ली स्टूडियो की बजाए बांद्रा-कुर्ला कॉम्पलेक्स के लिए ऑटो ठीक किया। बांद्रा कोर्ट के बाहर बहुत देर तक दुविधा में खड़ी रही। कुटुंब न्यायालय, मुंबई के बाहर कई कुटुंब टूटने-बिखरने के कगार पर खड़े थे। लिली ने कभी तलाक होते नहीं देखा था, ना परिवार में ना जान-पहचान में। रिश्तों को तोड़ने की क्या ज़िद होती होगी, कौन-सा झटका रेशमी डोर से मज़बूत रिश्तों को तोड़ डालता होगा, एक घर और एक छत के नीचे सपने बांटनेवाले कैसे अजनबी बन जाते होंगे...
लेकिन लिली को असीमा की फ़िक़्र थी। फोन मिलाया तो कोई जवाब नहीं मिला। अब लिली कोर्ट की दहलीज़ लांघकर भीतर जा चुकी थी। असीमा को ज़्यादा ढूंढने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उसके साथ उसका कोई वकील था, और उससे थोड़ी दूर पर उसके शौहर खड़े थे। लिली को देखकर असीमा बिल्कुल हैरान नहीं हुई।
"इनसे मिलो, ये आदिल हैं। अबतक मेरे शौहर हैं, लेकिन अगले एक घंटे बाद नहीं होंगे।"
आदिल ने लिली की ओर बेफ़िक्री से अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। सकुचाती हुई लिली ने जल्दी से हाथ मिलाया और असीमा को लेकर एक कोने में चली गई। "क्या है ये सब असीमा? आई फील रिअली चीटेड।"
"मोर दैन मी?" असीमा की आंखों में तैरते पानी के जवाब में लिली कुछ ना कह पाई।
"जब यहां तक आई हो तो मेरे लिए थोड़ी और परेशानी उठा लो। घर जाकर दो दिनों के लिए सामान ले आओ। पूना चलो मेरे साथ। मैं अम्मी-अब्बू के सामने थोड़ी-सी हिम्मत चाहती हूं।"
शाम को लिली असीमा के साथ पूना जानेवाली बस में थी। क्यों, कैसे - इन सवालों से फिलहाल लिली नहीं जूझना चाहती थी।
बस में ही असीमा ने लिली को सबकुछ बताना शुरू किया। कॉलेज में असीमा और आदिल साथ थे, साथ आर्किटेक्ट बने, साथ नौकरी शुरू की और एक दिन पूना जाकर आदिल ने असीमा का साथ मांग लिया, हमेशा के लिए। तब दोनों ने मुंबई में बसने का फ़ैसला किया। आदिल ने अपनी कंपनी खोल ली और बीच-बीच में आर्किटेक्चर पढ़ाने लगे। असीमा ने कर्माकर आर्किटेक्स में नौकरी कर ली। शादी के बाद सालभर सबकुछ अच्छी तरह चलता रहा। पूरे हफ़्ते की नौकरी और फिर लोनावला, कजरथ या महाबलेश्वर में वीकेंड।
लेकिन एक साल में ही आदिल शादी से परेशान होने लगे। उन्हें बंदिशों से, सवालों से उलझनें होने लगीं। ससुराल लखनऊ में थी, इसलिए रिश्ते को मज़बूती देने के लिए उनका सहारा लेना भी मुश्किल थी।
"आर्किटेक्ट भी कलाकारों की तरह होते हैं लिली। जैसे उनकी कला को नहीं बांधा जा सकता, वैसे ही उनकी फ़ितरत भी मनमौजी होती है, बिल्कुल स्वच्छंद। पहले मैं बहुत रोती-चिल्लाती थी, बहुत झगड़ती थी। मेरे मां-बाप पूना से आनेवाले थे हमसे मिलने। आदिल ने उनसे मिलने की बजाए अपनी एक क्लायंट के साथ मड आयलैंड में रुक जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा। अगले दो साल तक हम ऐसे ही डूबते-उतराते रहे। कभी बहुत क़रीब, कभी बहुत दूर। लेकिन फिर खींचना मुश्किल हो गया। हर छोटी-छोटी बात तक़रार का सबब बन जाती। एक रात मैं बैंगलोर से मीटिंग के बाद वापस आई तो मुझे मेरा सूटकेस फ्लैट से बाहर पड़ा मिला। घर अंदर से बंद था। घंटे-भर तक घंटी बजाने के बाद भी आदिल ने दरवाज़ा नहीं खोला। मैं रातभर लावारिस जैसी कोलाबा की सड़कों पर घूमती रही, सूटकेस खींचते हुए। ना किसी दोस्त को बता सकती थी ना घर फोन कर सकती थी। सुबह दफ़्तर आई, गेस्ट हाउस बुक किया और पीजी खोजने लगी। इस बीच आदिल ने ना मेरे फोन का जवाब दिया ना एसएमएस का। मैं एक हफ़्ते तक फिर भी घर जाती रही, इस उम्मीद में कि शायद उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हो जाए, शायद कोई रास्ता हम तलाश कर सकें। फिर एक रात एसएमएस पर उन्होंने तीन बार तलाक़ लिखकर भेज दिया, फिर ई-मेल किया और फिर अदालत के ज़रिए एक नोटिस मेरे दफ़्तर के पते पर आया। मैंने तब भी घर पर कुछ नहीं कहा और एक ट्रेनिंग के लिए छह महीने के लिए इटली चली गई। वापस आई तब भी आदिल तलाक़ पर क़ायम थे। और बस आज तुमने देखा, वो मेरी प्रेम-कहानी का आख़िरी पन्ना था।"
लेकिन पूना में सबके सामने असीमा ये सबकुछ इतनी आसानी से ना कह पाई। लिली उसके साथ समझाने की कोशिश करती रही। कभी उसे परिवार के लोगों ने सुना, कभी बेइज़्जत किया। कभी उसे ख़ुद पर कोफ़्त होती रही कि इस पचड़े में पड़ी ही क्यों, कभी लगता असीमा की जगह वो होती तो क्या करती। इस तूफ़ान के बाद दोनों साथ ही लौटे थे। असीमा ज़्यादा दिनों तक घर पर नहीं रुकना चाहती थी।
दोनों की ज़िन्दगी फिर वीकेंड के इंतज़ार में कटने लगी। लेकिन लिली ने कई रातों को नमाज़ के बहाने उठी असीमा की सिसकियां सुनी थी, उसे क़ुरान की आयतों में सुकून ढूंढने की कोशिश करते देखा था। लेकिन कमरे में किसी और को असीमा की हालत का ज़रा-भी इल्म ना था। चारों फेम ऐडलैब्स जाते, लंच और डिनर के लिए मिलते, यहां तक कि साथ मिलकर मुंबई दर्शन के लिए भी निकलते।
लिली के मंगेतर के मुंबई लौट आने के बाद ये सिलसिला कम हो गया। मार्च में लिली को घर जाना था, अपनी शादी के लिए। असीमा ने भी दुबई जाने का फ़ैसला कर लिया था और नौकरी के लिए अर्ज़ियां भी डालने लगी थी। "इट हैज़ टू बी दुबई इफ आई एम एन आर्किटेक्ट," उसने दलील दी और अपने लैपटॉप पर बुर्ज ख़लीफा और पाम जुमैरा की तस्वीरें दिखाईं, जिन्हें आर्किटेक्चर की दुनिया का अजूबा माना जाता है।
एक इतवार को रात में सोने से पहले लिली आदतन असीमा के पास गई, अपने बालों में तेल लगवाने के लिए। विशाखा और नफ़ीज़ा नहीं लौटे थे।
बालों में तेल लगाते हुए असीमा शादी की तैयारियों के बारे में पूछती रही। लिली हां-हूं में ही जवाब देती रही।
बालों से निकलकर असीमा की उंगलियां लिली के कंधों को दबाने लगी थीं। लिली की आंखें अपने-आप बंद होने लगीं। पतली-सी नाइटी के भीतर से असीमा की उंगलियां अब लिली की गर्दन पर उभर आए उन नीले निशानों को सहला रही थीं जो उसने कल से कॉलर-वाली शर्ट पहनकर छुपा रखा था।
"जिस मंगेतर से तुम अपनी सबसे क़रीबी दोस्त को नहीं मिलवा पाई, जिससे ना मिलने के तुम सौ बहाने ढूंढती हो और जिससे मिलकर आने के बाद तुम दो दिनों तक बीमार दिखती हो, उसी मंगेतर के प्यार की निशानी हैं ये ज़ख़्म?"
लिली हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। "नहीं, नहीं। वो तो बस ऐसे ही। शेखर को गुस्सा ज़रा जल्दी आता है।"
"और गुस्से का ये अंजाम होता है कि तुम चोट के दाग़ छुपाए फिरती हो? इतनी तकलीफ़ सह कैसे लेती हो लिली?"
"शरीर के ज़ख़्मों को मन पर नहीं आने देती, इसलिए।"
"लेकिन कबतक? मैं रिश्तों की कोई एक्सपर्ट नहीं। बल्कि रिश्तों पर सलाह देने का तो मुझे कोई हक़ ही नहीं। लेकिन जान-बूझकर ख़ुद को कुंए में मत ढकेलो लिली।"
लिली चुप रही। असीमा ने कुछ रुककर कहा, "ग़ालिब तुम्हारे पसंदीदा शायर हैं ना। सो, ये शेर तुम्हारे लिए है - वफ़ा कैसी, कहां का इश्क़, जब सर फोड़ना ठहरा? तो फिर ऐ संगदिल, तेरा ही संग-ए-आस्तां क्यूं हो?"
"नहीं जानती असीमा। लेकिन शादी के दो महीने पहले मैं कुछ नहीं कर सकती। मुझमें हिम्मत नहीं।"
"और सपनों को टूटने देखने की हिम्मत है? छुप-छुपकर पिटने की हिम्मत है? जो रात-रात भर बैठकर स्क्रिप्ट्स लिखती हो उनको समंदर में बहा आने की हिम्मत है? दस साल की उम्र से फिल्में बनाने का जो सपना देखा, उसे चूर-चूर करने की हिम्मत है?"
अगली सुबह लिली ने पटना फोन किया था। शादी तोड़ने की घोषणा करने के लिए। अगला एक हफ़्ता बहुत भारी था। मां-पापा और बाद में तमाम चाचाओं-मामाओं के सामने फोन पर अपनी दलीलें रखते-रखते लिली थक गई थी। शेखर नाराज़ होकर सीधा उसके सार्वजनिक चरित्र-हनन पर उतर आया था। टीवी की जिन पार्टियों में वो शेखर को अपना मंगेतर बनाकर ले गई थी, उससे कुछ ना छुपाने के मकसद से उसने जो राज़ शेखर से साझा किए थे, वे सभी आज उसी के ख़िलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे। रिश्ता टूटने के बाद शेखर जैसे लिली से पेश आया, उसे देखकर लिली ने चैन की सांस ली। कम-से-कम उसका असली चेहरा तो सामने आया था।
एक शाम असीमा ने लिली को एसएमएस भेजा था - "जिस जन्नत की तलाश में हम हैं, वो है कहीं..."
ANU SINGH CHOUDHARY
Independent Film maker November 2007- Till date
• A TVC with Ustad Amzad Ali Khan on paying Service Tax honestly. The 60-sec ad film was shown on all the major TV channels across the country in January, 2010. Was the Associate Director of the ad film.
• “Guardians of Economic Frontiers” (2009) – A film on the role of Indian Customs. Shot across the country, the film looks at the variety of responsibilities undertaken by the Customs Officials. This film was telecast on NDTV 24*7. Was the Associate Director and Scriptwriter of the film.
• “Healing the World” (2008) – A film on the rise of medical tourism in India. Shot in Delhi, Bangalore, Hyderabad and Kerala, the film was produced by the Ministry of External Affairs. Was the Associate Director of the film.
• “Lacquered Dreams” (2008) – A documentary on Lac as a livelihood option. Shot in Jharkhand and West Bengal, the film widely shows the potential of Lac sector across the country. Produced by Pradan. Was the Director and Scriptwriter of the film.
• “Lighting Up the Hills” (2007) – A documentary onPahariyas, a Primitive Tribal Group based in Jharkhand. The film showcases the ground reality of this community and their struggle to survive. Produced by Pradan, an NGO, this project was supported by MoRD and UNDP. Was the Director and Scriptwriter of the film. The film was made in Hindi and English.
• “Peacekeepers” (2007) – A film on India’s contribution to UN Peacekeeping Mission in the last six decades. The film, produced by Ministry of External Affairs, was shot in New Delhi, New York, Kosovo and Democratic Republic of Congo. Handled the post-production of the film.
Other Independent Projects November 2007- Till date
• Took guest lectures in Indian Institute of Mass Communication (IIMC) on TV reporting and writing scripts for TV. Also corrected copies for the “Reporting” paper.
• Created a pictorial booklet in English and Hindi on Pahariyas. The booklet mainly features the PTG’s struggles for survival and the impact of initiatives taken by Pradan
• Wrote and designed a 24-page document (in Hindi and English) on Lac as an important source of livelihood in the forest-fringe areas of Jharkhand and West Bengal
• Created the training material for poultry co-operatives run by Pradan in Madhya Pradesh
• Created the training material for the professionals recruited by Pradan
• Content and Website Development for FXB India Suraksha (www.fxbsuraksha.org)
• Designed logos, visiting cards and letterheads for Indian Council for Mental Hygiene (ICMH), Mumbai
• Contributed regularly to newspapers and websites on current affairs and social issues
• Scriptwriting for films and documentaries produced by The Energy Research Institute (TERI) on environmental concerns
• Scriptwriting for a series of 10 films made by TERI for Doordarshan in association with Ministry of Renewable Energy
• Hindi script for a film (Notes from a Green City) commissioned by UKEF 2010. The film was telecast on National Geographic and was shown across all the major cities of India.
Senior Output Editor August 2003 – October 2007
New Delhi Television (NDTV India)
Assistant Executive Producer
Tijori Fims Pvt. Ltd, Mumbai July 2002 – July 2003
Key areas of Responsibility
• Coordinating with the artists and technicians during the production of Dial 100, Star Bestsellers and film ‘OOPS’
• Coordinating with the creative agencies and event agencies for branding activities for Tijori Films
• Responsible for displays, promotions and exploring various other branding options for maximum visibility during the promotions of the film
• Website management: Designed and created content for http://tijorifilms.com/
• Research and writing proposals for prospective films and TV series
• On the advisory team of the company as a script writer
EDUCATION
MA in Hindi with specialisation in Mass Communication
PG Diploma in Mass Communication with specialisation in Print Journalism from Indian Institute of Mass Communication, New Delhi
BA (Hons) in Hindi from Lady Shri Ram College, DU
AWARDS AND SCHOLARSHIPS
• Hindi Academy Prize for being the young promising writer (1998)
• Bharat Bhushan Agarwal Award for Hindi Creative Writing (1999)
• Award for Outstading Contribution to Hindi Public Speaking in Lady Shri Ram College (1999)
• Rukmini Devi Prize for Best Student in Hindi in Lady Shri Ram College (1999)
• South Campus Endowment Scholarship for standing first in SDC (2001-2002)
• Academic Prize for Best Student in Hindi in Lady Shri Ram College (1997)
• Best Leadership prize for taking initiatives in various inter and intra school programmes (1996)
INTERESTS
Travelling, Writing short stories (http://mainghumantu.blogspot.com)
Comments
english poem
dear editor,
i liked the various write ups published in this issue.
i wish to send my poems too-----how to send?
pl.guide.
abha goswami
surbahar123@rediffmail.com